अंतःदृष्टि से अंतमुखी होकर ध्यान योग द्वारा सूक्ष्म शरीर के अंतरंग के किसी भाग के दर्षन किए जाते हैं। उसी प्रकार ज्ञान चक्षुओं से देवी सम्पन्न पुरुषों के, अधिकांषतः मुख के आस-पास तेजोवलय देखा जाता है। चुम्बकीय गुण के सदृष्य प्रचंड प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों में भी मानवीय विद्युत का असीम भण्डार रहता है, जिसके संपर्क में आने पर ज्ञान, प्रेरणा एवं मार्गदर्षन प्राप्त होता है। इसमें तेजोवलय ही प्रमुख है। महामानवों के दर्षन, आषिर्वचन, दृष्टिपात में तो सत्परिणाम रहते ही हैं, उनमें उनका यही प्रकाषपुंज भी कार्य करता है।’ क्या है तेजोवलय प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में विद्युत धाराओं के रुप में ऊर्जा निरंतर प्रवाहित होती रहती है। इनकी तीव्रता की गति, रंग, आकार प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग होता है। महापुरुषों तथा देवी-देवताओं के मुखमण्डल के चारों ओर जो प्रकाष, कांति पुंज अथवा तेज आदि चित्रकारों द्वारा चित्रित किया जाता है, वह मात्र उनकी कल्पना न होकर वस्तुतः विद्युत धाराएं ही होती हैं, जो कि बहुत सुदृढ़ होती हैं। हमारी भावनाएं, आचार-विचार और कर्म इनको संचालित करते हैं और उसी के अनुरुप यह एक सुरक्षा कवच के रुप में व्यक्ति के चारों ओर उपस्थित रहती हैं। यदि यह सुरक्षा कवच शक्तिषाली है तो शरीर में पहले तो कोई भी रोग, शोक तथा व्याधि आदि इस रक्षा कवच में प्रवेष ही नहीं कर पाती। यदि कोई दुर्भिक्ष कवच बेधकर प्रविष्ट हो भी जाता है तो उसकी तीव्रता प्राकृतिक रुप से इस दिव्य प्रतिरोधक क्षमता के आगे स्वतः ही क्षीण होने लगती है। तेजोवलय, आभामण्डल, ऊर्जा वलय, ऊर्जा मण्डल, आदि हिन्दी शब्दों के चर्चित इन नामों को लेटिन भाषा में ‘आॅरा’ कहा जाता है। इसका अर्थ होता है, ‘निरन्तर बहने वाली हवा।’ शरीर के सात चक्र और व्याधियां शरीर में उपस्थित सात चक्र प्रभामण्डल का संचालन करते हैं। यह हमारी मानसिक, शारीरिक, भावात्मक शक्तियांे से जुड़कर वर्तमान और भविष्य के लिए एक दर्पण तैयार करते हैं। सिद्ध पुरुष इस दर्पण को पढ़कर आने वाली अनेक समस्याओं का समाधान करने में सक्षम होते हैं। शरीर के सातों चक्र विभिन्न वर्ण युक्त होते हैं। इनमें उपजा असन्तुलन विभिन्न शारीरिक व्याधियों को जन्म देता है। योग, ध्यान तथा प्रबल इच्छा शक्ति के द्वारा चक्रों के वर्णों में उपजा असन्तुलन तेजोवलय स्वयं के दर्पण में देखकर और तदनुसार उनमें सन्तुलन बनाकर रोग, शोक और व्याधियों से मुक्ति पायी जा सकती है। तेजोवलय में सात आभावृत्त पाए जाते हैं, यह वस्तुतः जीव के सूक्ष्म शरीर के तीन जगत से सम्बन्धित होते हैं। आध्यात्मिक आभामण्डल का व्यास लगभग 8 से 15 फुट तक रहता है। दूसरे मानसिक आभा मंडल का व्यास लगभग 8 फुट तक रहता है तथा तीसरे भौतिक शरीर के मंडल का व्यास 8 इंच तक रहता हैं। तीनों आभाएं परस्पर एक दूसरे पर निर्भर रहती हैं। व्यक्ति की मानसिक तथा भावनात्मक पृवत्ति के अनुरुप यह आभाएं अपनी कांति, वर्ण, आकार तथा व्यास क्षेत्र परिवर्तन कर लेती हैं। आभामण्डल अर्थात् हमारी ऊर्जा को सात चरणों में बांटा गया है। यह सूक्ष्म ऊर्जा स्तर अर्थात् शरीर विभिन्न चक्रों अर्थात् प्रवेष द्वार से सम्बद्ध होते हैं। भौतिक शरीर अर्थात् मूलाधार चक्र इसका रंग लाल है। इसका सम्बन्ध हमारी शारीरिक अवस्था से होता है। इस चक्र के ऊर्जा तत्व में बना असन्तुलन रीढ़ की हडडी, रक्त और कोषिकाओं तथा अनेक शारीरिक प्रक्रियाओं को प्रभावित करता है और व्यक्ति इन से सम्बन्धित व्याधियों के षिकार होने लगते हैं। मानव शरीर अर्थात् स्वाधिष्ठान चक्र इसका रंग नारंगी है। यह चक्र प्रजनन अंगों को प्रभावित करता है। इस चक्र में उपजा असन्तुलन व्यक्ति के आचरण और व्यवहार पर प्रभाव डालता है। सूक्ष्म शरीर अर्थात मणिपुर चक्र यह चक्र पीत वर्ण आभा का है। यह व्यक्ति की बुद्धि तथा स्मरण शक्ति निर्धारित करता है। यहाॅ उपजा असन्तुलन अवसाद और मानसिक अस्थिरता को जन्म देता है। मनः शरीर अर्थात् अनाहत चक्र इस का रंग हरा है। यह चक्र सीधे-सीधे प्रभामण्डल की कांति को प्रभावित करता है। इस चक्र में हुआ असन्तुलन भाग्यहीन बनाता है। दमा, यक्ष्मा और फेफड़ों से सम्बन्धित रोगों को जन्म देता है। आत्म शरीर अर्थात् विषुद्ध चक्र इस चक्र का रंग हल्का सा नीलवर्ण है। यह व्यक्ति की वाणी और गले पर नियंत्रण रखता है। ब्रह्मषरीर अर्थात् आज्ञाचक्र दानों भौवों के मध्य स्थित यह चक्र गहरे नीलवर्ण का होता है। यह चक्र सात्विक ऊर्जा का प्रवेष द्वारा है। यह मस्तिष्क को प्रभावित करता है। यदि आज्ञा चक्र सन्तुलित है तो सातों चक्र स्वतः ही सन्तुलन में होने लगते हैं। निर्वाण शरीर अर्थात् सहस्रार चक्र यह सफेद रंग का होता है। सौ दलों से सुसज्जित यह चक्र समस्त चक्रों का राजा कहलाता है। कुण्डिली जागरण में इस चक्र की भूमिका महत्वपूर्ण है। इस चक्र का सन्तुलन व्यक्ति में सम्पूर्ण शक्तियों का समावेष कर देता है। तेजावलय के रंग और उनका प्रभाव * गुप्त-सुप्त तेजोवलय कांति में विभिन्न रंगों की आभा का समावेष व्यक्ति के विचार, मनःस्थिति, रोग, स्वास्थ्य, अध्यात्म आदि को दर्षाता है। * सुनहरे चमक की आभा शारीरिक शक्ति, महात्वाकांक्षाओं, उत्साह तथा काम शक्ति की प्रतीक हैं। * हल्के लाल रंग की आभा काम, क्रोध, तथा हिंसा की प्रतीक है। * काले चमक वाली आभा शोक, भय, द्वैष, रोग, आलस्य, संदेह की प्रतीक है। * पीतवर्ण आभा आध्यात्मिक सम्मान, प्रेम भाव, आत्मविष्वास, आषावादिता और आदर्षवादिता की प्रतीक है। * मिटटी जैसी आभा मानसिक रोग, चिन्ता, भय, निराषा, भ्रम तथा जीवन ऊर्जा में ह्रास उत्पन्न करती है। * बेजान पीली सी आभा ईष्या-द्वेष, संदेह, निराषा, भय, शोक तथा रोग देती है। * जामुनी आभा उच्चतम शक्तियों को ग्रहण करने की सामथ्र्य देती है। यह योगी बनाती है। * चांदी की चमक वाली आभा स्वास्थ्य, गतिषीलता, आत्मविष्वास, सहनषक्ति प्रदान करती है। * गुलाबी आभा अच्छा स्वास्थ्य, सन्तुलित मानसिकता, निःस्वार्थ भाव की प्रतीक है। * हल्की नीलवर्ण आभा आध्यात्मिक उन्नति, आत्म संयम तथा सद्मार्ग की प्रतीक है। * नीलवर्ण आभा वैज्ञानिक और तार्किक प्रवृत्ति का धनी बनाती है। * हरे रंग की आभा अच्छा स्वास्थ्य, हंसमुख स्वभाव और संन्तुलित मानसिकता का धनी बनाती है। * काले रंग की आभा रोग, शोक, द्वेष तथा संत्रास देती है। * नारंगी आभा आने वाले शारीरिक रोग-षोक की प्रतीक है। यह व्यक्ति को अल्प बुद्धि बनाती है। कैसे देखें अपना तेजोवलय वैसे तो आज रेकी नाम से अनेक स्थानों पर आभा मंडल को सिद्ध करने के कोर्स कराये जा रहे हैं। परंतु इस गुप्तादिगुप्त कांति का दर्षन किसी विषेष भाग्यषाली व्यक्ति पर हुई गुरु कृपा अथवा अपने स्वयं के आत्म विष्वास और सतत निःस्वार्थ एवं निष्काम प्रयासों से ही संभव होता है। मुस्लिम समाज में प्रचलित हमजा़द और अध्यात्म जगत का आत्मसात वस्तुतः तेजोवलय दर्षन की ही प्राथमिक सीढि़यां हैं। पाठकों के लाभार्थ सरल सा उपाय लिख रहा हॅू। मन में आत्मविष्वास और पूरी लगन के साथ यह प्रारंभ करिये। समय, महुर्त, स्थान, वर्ण, आयु, आदि किसी भी बात का इसमें बंधन नहीं है। प्रातः उगते हुए सूर्य को अघ्र्य देने का सर्वप्रथम नियम बना लें। अघ्र्य देते समय सूर्य की किरणें जल से छन कर आंखों व शरीर पर पड़ें, शरीर का ऐसा आयाम सुविधा से आप सुनिष्चित कर लें। अघ्र्य के बाद अधखुली आंखों से सूर्य को देखंे। इसके बाद आंखें बंद कर लें। और यत्न से सूर्य की नारंगी दिव्य आभा को मष्तिस्क में बसाने का प्रयास करें। उठते-बैठते, सोते-जागते निरंतर अभ्यास करते रहें कि बंद आंखों में सूर्य की ऊषाकालीन आभा तो बसी ही रहे, खुली आंखों से भी इस अग्नि तत्व का प्रकाष झलकता रहे। आगे बढ़ने से पहले यह अवष्य स्वीकार कर लीजिए कि यह दिव्यता न तो आप पर बलात् थोपी जा सकती है न ही आप इसको कोई मोल दे कर क्रय कर सकते हैं। निरंतर तत्व ज्ञान के इस अभ्यास से आत्मा उध्र्वमुखी बनेगी और मन के भटकने पर अंकुष लगाएगी। अगले अभ्यास में एक दर्पण के सामने किसी सुखद मुद्रा में बैठ जाएं। कमरे का वातावरण सुखद और शांतिमय बना लें। हाॅ, दिन में शांति भरा वातावरण न मिल पाए तो अभ्यास रात्रि की निस्तब्धता में करें। कमरे में प्रकाष की व्यवस्था ऐसी रखें कि अपना चेहरा मात्र ही आप दर्पण में देख सकें। टकटकी लगाकर सारा ध्यान अपने चेहरे पर केन्द्रित करने का अभ्यास करें। अपनी ही अपनी छवि बस निहारें। प्रारम्भिक दिनों में पहले तो मन भटकेगा, वह अपको स्थिर नहीं बैठने देगा फिर आपकी अपनी चंचल दृष्टि चेहरे के अतिरिक्त इधर-उधर रखी वस्तुओं की तरफ दौड़ जाएगी। इसको संयम से नियत्रंण करना है। कुछ समय के अभ्यास से एक अवस्था ऐसी आने लगेगी कि आपका ध्यान अपने बिम्ब पर केन्द्रित होने लगेगा। मात्र पांच-दस मिनट के लिए नियमित रुप से अभ्यास बढ़ाते जाएंगे तो आॅखों से अश्रु प्रवाह होने लगेगा। यह स्वतः प्रवाह मांस-पेषियों में बलात् जोर देने के कारण से होगा। यदि अश्रु प्रवाह अपने इष्ट देव के प्रति उपजे दिव्य प्रेमभाव स्वरुप होता है और आप भौतिक देह के ध्यान से अध्यात्म की दिव्य धारा में स्वयं को सूर्य की लालिमा में विलीन होता देखते हैं तो आपको दिव्य अनुभूतियां होना आरंभ हो जाएंगी। आपका चेहरा पहले दर्पण में धुंधला होगा। कभी वह लालिमा में खो जाएगा। कभी ऐसा भी लगेगा कि सब कुछ अंधकारमय हो गया और उस कालिमा में चेहरा भी विलुप्त हो गया। ऐसा भी कभी-कभी दिखाई देने लगेगा कि चेहरा दर्पण में इधर-उधर हिल-डुल रहा है। इस अवस्था से निकल कर ध्यान की अधिक गहराई में जब कदम बढ़ाएंगे तब चेहरे के चारों ओर एक धुंधलका दिखाई देने लगेगा। यह स्थिर नहीं होगा। कभी मूर्त हो जाएगा तो कभी आंसुओं के धंुधलके मंे विलुप्त होने लगेगा। बिम्ब की इस मूर्त अवस्था को ही बस पकड़ना है। यही आपका तेजोवलय है और इसको ही सतत् अभ्यास से चैतन्य करना है। तेजोवलय चैतन्य करने का यह एक सूक्ष्म ज्ञान मात्र है। यह पूर्णतः कदापि नहीं है। इसको इस प्रकार समझें जैसे कि किसी प्रषिक्षक ने आपको गाड़ी चलाना मात्र सिखा दिया है। गाड़ी चलाने में निपुण होना तथा उसकी तकनीकियों में सिद्धहस्थ होना अथवा न होना अंततः निर्भर करेगा आपके सतत् अभ्यास और लगन पर। यूनिकोड में परिवर्तन करने से शब्दों में अनेक त्रुटियाँ हैं
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